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Thursday, October 22, 2009

वज़न

ज्यों ही साईकिल रिक्शा आगे बढ़ा,
मेरी जेब में पड़ा दो रूपये का सिक्का गोल-गोल घूमने लगा
जैसे-जैसे रिक्शा तेज़ होता जाता था,
सिक्का भी तेज़ घूमता जा रहा था ...साथ ही गर्म भी होता जा रहा था

साईकिल रिक्शा पूरी गति में गया
और सिक्का तो गर्म होते-होते अंगारा ही बन गया !
मैं ज़ोर से चीख पड़ा,
"अबे धीरे चला, मारेगा क्या ?"

एक झटके के साथ साईकिल रिक्शा रुक गया
रिक्शावाला नीचे उतर कर बोला,
"कोई परेशानी बाबूजी ?.....
लो, आपका ठिकाना भी गया"

मैंने रिक्शा से उतरते हुए जेब में हाथ डाला
अंगारा निकाला और उसकी तरफ़ उछाला
लाल-लाल अंगारा उसकी खुरदरी हथेली से जा चिपका
फ़िर से दो का सिक्का बन गया !

मैंने पूछा, "क्यों रे, सिक्का भारी है ना ?"
वो बोला, "हाँ बाबूजी, सही कहा
कुछ देर पहले एक आदमी जितना भारी था,
अब बिल्कुल हल्का है, पचास ग्राम मूंगफली सा हल्का !"

2 comments:

  1. बहुत गहरे भाव। बहुत ही उम्दा रचना है।बधाई स्वीकारें।

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  2. AAAhhhhAAA MAZA AAGAYA kya bat hai yaar itni purani rachna abhi bhi PRASANGIK hai hahahahah......

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