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Monday, October 12, 2009

एक कहानी, वही पुरानी......

आओ सुनाऊं आपको गूढ़ पते की बात ।
आओ सुनाऊं आपको रीढ़-पेट की बात ।
एक था पेट, एक थी रीढ़ ।
साथ ही रहते थे दोनों ।
पेट आगे-आगे, रीढ़ पीछे-पीछे ।
दोनों हरदम साथ-साथ,
दोनों की मगर अलग थी सोच, अलग-अलग दोनों की बात ।

पेट चाहता हरदम भरा रहना ।
रीढ़ चाहती हरदम तना रहना ।
पेट जब तक भरा रहता, रीढ़ पूरी तरह तनी रहती ।
जब पेट खाली हो जाता तब रीढ़ तनी न रह पाती ।

एक विवाद खड़ा हो जाता यहाँ से ।
पेट कहता, "मैं इस वक्त खाली हूँ भई, तू इस तरह झुक कर मुझ पर बोझ न बन रीढ़ !"
रीढ़ कहती, "बोझ कौन बनाना चाहता है, ये तो है मजबूरी मेरी ।"
पेट कहता, "मुझे तो बात समझ आई ना तेरी "

रीढ़ कहाँ चुप रहने वाली, कहती-
"रे जनम-जनम के भूखे ! तू जब खाली हो जाता है, फ़िर से तू भरना चाहता है । मैं अगर ना झुकूं तो
हवा निकल जाए सब तेरी । मेरे झुकने से ही तू पाता है रोटी ! इसे महरबानी तू मान मेरी ।"

ठंडी साँस भर कर पेट कहता-
"तेरी अकड़ ने ही तो मुझको मार रखा है, तूने तो हमेशा मुझ पर भार रखा है ।
तेरा मिथ्या 'स्वाभिमान' है, कि मैं रूखी- सूखी हूँ पाता, तू ना होती तो मैं हरदम माल-मेवा खाता !"

यूँ ही रोज़ झगड़ते थे, फ़िर भी साथ रहते थे ।
एक था पेट, एक थी रीढ़ !

2 comments:

  1. क्या बात है.. बातो बातो में काफी गहरी बात कही आपने..

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