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Monday, October 26, 2009

मतलब

"आप क्या करते हैं ?"
"अपना क्या, कुछ भी कर लेते हैं"
"कुछ भी ?"
"हाँ, कुछ भी"
"मतलब ?"
"अजी, मतलब तो आप निकालते रहो"
"नहीं-नहीं, मेरा मतलब है....."
"हाँ-हाँ, सब किसी न किसी मतलब से बात करते हैं "
"आप मेरे कहने का ग़लत मतलब निकाल रहे हैं"
"तो आपका मतलब कुछ और है ?"
"बेशक !"
"तब तो आप मेरी बात को और पुख्ता कर रहे हैं"
"कौनसी बात ?"
"वही, कि सब किसी न किसी मतलब से बात करते हैं"
"अजीब आदमी हो"
"अब आप मतलब निकालने लगे ?"
"नहीं, ये तो एक बात कही है"
"ज़रूर फ़िर किसी मतलब से कही होगी"
"मैंने कहा न, मैं किसी मतलब से बात नहीं करता"
"तब तो बात करने का कोई मतलब ही नहीं रह जाता"
"अरे भई, मतलब क्या है तुम्हारा ?"
"तुम क्या सचमुच बिना मतलब बात कर रहे हो ?"
"हाँ"
"तो आगे से ख़ुद का और मेरा टाइम ख़राब मत करना"
"क्या मतलब ?"
"मतलब ये, कि जब किसी से कोई मतलब हो, तो लब मत खोलना....
बिना मतलब भी अगर लब खोलोगे, तब भी कोई कोई मतलब ज़रूर निकलेगा !"

Thursday, October 22, 2009

वज़न

ज्यों ही साईकिल रिक्शा आगे बढ़ा,
मेरी जेब में पड़ा दो रूपये का सिक्का गोल-गोल घूमने लगा
जैसे-जैसे रिक्शा तेज़ होता जाता था,
सिक्का भी तेज़ घूमता जा रहा था ...साथ ही गर्म भी होता जा रहा था

साईकिल रिक्शा पूरी गति में गया
और सिक्का तो गर्म होते-होते अंगारा ही बन गया !
मैं ज़ोर से चीख पड़ा,
"अबे धीरे चला, मारेगा क्या ?"

एक झटके के साथ साईकिल रिक्शा रुक गया
रिक्शावाला नीचे उतर कर बोला,
"कोई परेशानी बाबूजी ?.....
लो, आपका ठिकाना भी गया"

मैंने रिक्शा से उतरते हुए जेब में हाथ डाला
अंगारा निकाला और उसकी तरफ़ उछाला
लाल-लाल अंगारा उसकी खुरदरी हथेली से जा चिपका
फ़िर से दो का सिक्का बन गया !

मैंने पूछा, "क्यों रे, सिक्का भारी है ना ?"
वो बोला, "हाँ बाबूजी, सही कहा
कुछ देर पहले एक आदमी जितना भारी था,
अब बिल्कुल हल्का है, पचास ग्राम मूंगफली सा हल्का !"

Sunday, October 18, 2009



















एक दीया.....
सबको बस दिया ही दिया....
जग को प्रकाश से भर दिया....
रात भर जलता रहा, हवाओं से लड़ता रहा
हँसता रहा....
कहता रहा,
"शुभ दीपावली !"

सुबह हुई, सबने देखा ,
दीये के चारों तरफ़ बिखरे पतंगे...
जले-अधजले....

कोई बोला,
"ओह.....ये दीया !
बड़ी मेहनत से सफाई की थी,
सारे घर में फ़िर से कचरा कर दिया ।"

जले हुए पतंगों के बीच रखा हुआ दीया
चुपचाप सुनता रहा लोगों की बातें जली-जली.....
जो रातभर सबसे कहता रहा था,
"शुभ दीपावली !"

Monday, October 12, 2009

एक कहानी, वही पुरानी......

आओ सुनाऊं आपको गूढ़ पते की बात ।
आओ सुनाऊं आपको रीढ़-पेट की बात ।
एक था पेट, एक थी रीढ़ ।
साथ ही रहते थे दोनों ।
पेट आगे-आगे, रीढ़ पीछे-पीछे ।
दोनों हरदम साथ-साथ,
दोनों की मगर अलग थी सोच, अलग-अलग दोनों की बात ।

पेट चाहता हरदम भरा रहना ।
रीढ़ चाहती हरदम तना रहना ।
पेट जब तक भरा रहता, रीढ़ पूरी तरह तनी रहती ।
जब पेट खाली हो जाता तब रीढ़ तनी न रह पाती ।

एक विवाद खड़ा हो जाता यहाँ से ।
पेट कहता, "मैं इस वक्त खाली हूँ भई, तू इस तरह झुक कर मुझ पर बोझ न बन रीढ़ !"
रीढ़ कहती, "बोझ कौन बनाना चाहता है, ये तो है मजबूरी मेरी ।"
पेट कहता, "मुझे तो बात समझ आई ना तेरी "

रीढ़ कहाँ चुप रहने वाली, कहती-
"रे जनम-जनम के भूखे ! तू जब खाली हो जाता है, फ़िर से तू भरना चाहता है । मैं अगर ना झुकूं तो
हवा निकल जाए सब तेरी । मेरे झुकने से ही तू पाता है रोटी ! इसे महरबानी तू मान मेरी ।"

ठंडी साँस भर कर पेट कहता-
"तेरी अकड़ ने ही तो मुझको मार रखा है, तूने तो हमेशा मुझ पर भार रखा है ।
तेरा मिथ्या 'स्वाभिमान' है, कि मैं रूखी- सूखी हूँ पाता, तू ना होती तो मैं हरदम माल-मेवा खाता !"

यूँ ही रोज़ झगड़ते थे, फ़िर भी साथ रहते थे ।
एक था पेट, एक थी रीढ़ !

Friday, October 9, 2009

चिंगारी

वो रोजाना गली से बहार निकल कर आती ।
नुक्कड़ पर खड़े साईकिल रिक्शा के पास जा कर कहती-
'महिला कॉलेज चलो ।'
अधेड़ उम्र का रिक्शावाला चुप-चाप रिक्शा चलाना शुरू कर उसे कॉलेज छोड़ आता।
एक दिन रास्ते में रिक्शावाला पूछ बैठा- 'बेटी, कॉलेज में पढाती हो ?'
'नहीं,...... पढ़ती हूँ' उसने जवाब दिया ।
'लेकिन बेटी,....देख कर तो लगता है,......'
'हाँ चाचा, शादी के बाद पढ़ाई छूट गई थी, अब उनके गुजर जाने के बाद फ़िर से......'
'ओह....यहाँ कोई रिश्तेदार ?'
'हाँ चाचा, मेरे भइया-भाभी'
'भइया को देखा नहीं कभी साथ में'
'नौकरी पर जाते हैं सुबह-सुबह । पहले मुझे स्कूटर पर कॉलेज छोड़ कर जाया करते थे,
लेकिन रोजाना 20-25 रु. का खर्च ...प्राइवेट नौकरी में कहाँ तक करते... मैंने ही मना कर दिया ।'
'लेकिन अब रिक्शा किराया....?'
'मैं देती हूँ, मेरे पति की पेंशन मिल रही है ना मुझे'
'हूँ..अब समझा, क्या चाल चली तेरे भइया-भाभी ने !.............वैसे भी बेटी, कोंन कितने दिन निहाल करता है आजकल....'

रिक्शावाले की यह बात दुनिया की आग की पहली चिंगारी बन कर उसके दिमाग से जा चिपकी !

Thursday, October 8, 2009

मैं सोना चाहता हूँ

"मैं चैन से सोना चाहता हूँ "
"तो सो जा न, रोका किसने है?"
"मगर नींद नहीं आ रही है"
"क्यों भई ?"
"चैन से सोने के लिए ज़रूरी है, कि गले में चेन न हो "
"अरे भई, चैन दिमाग में होता है, न कि गले में "
"तू नहीं समझेगा "
"क्यों ? मेरे पास दिमाग नहीं है क्या ?"
"है, लेकिन चेन नहीं है "
"फ़िर वही......"
"अरे भई, तेरे गले में चेन नहीं है,....सोने की चेन ! "
"सोने की चेन ? "
"हाँ, सोने की चेन...चेन... समझा ?"
"हाँ-हाँ.......तो ?"
"जिसके गले में चेन हो, वो चैन से नहीं सो पाता"
"क्यों ?"
"क्यों कि ये जयपुर है, यहाँ आए दिन महिलाओं के गले से चेन तोड़ने की घटनाएँ होती हैं "
"अब समझा, तू दिमाग की जगह गला क्यों बोल रहा था"
"इसका मतलब है, तेरे पास दिमाग भी है"
"सो तो है....मगर तू चाहता क्या है ?"
"सोना चाहता हूँ"
"तो गले से सोने की चेन उतार कर ताले में रख, और चैन से सो"

Sunday, October 4, 2009

आ दिवाली आ !

आ दिवाली आ .....
जगमग-जगमग आ
धूम-धाम से आ
जल्दी-जल्दी आ ।

भत्ते-बोनस ला
मुफ्त-छूट दिला
गिफ्ट-इनाम बरसा
मिठाई-मेवे खिला ।

साल भर तक की प्रतीक्षा
सबका उल्लू किया है सीधा
अब 'लिछमी' जब प्रकट हो रही,
भई रख ले, मत शरमा ।

सुख से जीने का यह जरिया,
जीवन है एक बहता दरिया
सच्चा 'अर्थ' यही जीवन का
व्यर्थ न 'चांस' गँवा ।

आ दिवाली आ,
अब तो आ ही जा !

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