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Saturday, September 26, 2009

एक था बंदर.....

एक था जंगल....
जंगल में पेड़.....
पेड़ पर बंदर......
बंदर ही बंदर.....
वैसे तो बंदरों का पूरा झुंड ही था , लेकिन एक बंदर कुछ अलग ही था ।
सारे बंदर दिन भर धींगा-मुश्ती करते, उधम मचाते, पेड़ों पर उछलते-कूदते........
लेकिन वो एक बंदर ख़ुद उछलना-कूदना तो दूर, दूसरे उछलने-कूदने वालों पर भी अंगुली उठाता।
उनकी शिकायत बुजुर्ग बंदरों से करता । बुजुर्ग बंदर उससे कहते,"अरे भई, बंदर हैं....अपना काम कर रहें हैं...
तू भी अपना काम कर, किसी की शिकायत क्यों करता है ?"

वो बंदर नहीं माना । उसने एक बंदर को दूसरे के ख़िलाफ़ भड़काना शुरू कर दिया ।
मगर बंदरों पर कोई फर्क नहीं पडा । सब वैसे के वैसे !
वही उछल-कूद, मस्ती, धींगा-मुश्ती...... !

एक दिन सारे बंदर आर्श्चय में पड़ गए ।
वो अलग रहने वाला बंदर अपने दो हाथों को ज़मीन पर ना रख कर पिछले दो पैरों के सहारे चल रहा था ।
पेड़ों पर कभी उधम ना करने वाले उस बंदर को इस तरह अटपटे ढंग से चलते देख कर सारे बंदर
हंसने लगे ...."लो, सब की शिकायत करता था,....अब आया रास्ते पर !
.......अरे ऎसी हरकतें तो हम लोग भी करने की सोच नहीं पाते "

लेकिन वो बंदर लाइन पर नहीं आया था ।
कुछ सालों बाद सब बंदरों ने सुना, वही बंदर आदमी बन गया !!!!!!!!!!
एक था बंदर....

Wednesday, September 23, 2009

क्षमा चाहूँगा......लेकिन,....

आज श्री पुण्य प्रसून वाजपेयी के ब्लॉग में न्यूज़ स्टोरी "विकास की मोटी लकीरें" पढ़ी ।

उसी सन्दर्भ में-
जयपुर से भीलवाडा जा रहे राष्ट्रीय राजमार्ग को
यदि मैं "1,25,000 पेड़ों की कब्र " कहूँ,
तो कोई एतराज.....?

Monday, September 21, 2009

एक था रावण.....

एक था रावण.....
पराक्रमी, प्रकांड पंडित, समस्त कलाओं में निपुण,
दस दिशाओं पर एक साथ दृष्टी रखने वाला दशानन लंकेश !

सब कुछ अच्छा चल रहा था.....
एक दिन उसकी बहन अपने अपमान का समाचार ले कर उसके पास आई ।
रावण ने अपनी बहन के अपमान को चुनौती माना, और अपमान के प्रतिशोध का संकल्प ठाना ।
बस, यहीं से गड़बड़ हो गयी....!

बैठे-बिठाए लड़ाई मोल ले ली ।
उनसे, जिन्होंने उसकी बहन का अपमान किया था......
उनसे, जो उसके अपने थे, लेकिन उससे सहमत नहीं थे.....
उनसे, जो उससे सहमत तो थे, लेकिन अपने हितों को देखते हुए साथ देने को तैयार नहीं थे.....
उनसे, जो साथ तो दे रहे थे, मगर बेमन से.....!

आख़िर वही हुआ, जो होता आया है ।
सब के बीच बुरा बन गया बेचारा !
कौन कहता है, एक अकेले राम ने उसे मारा !

और तो और,....... लोग तो उसे आज तक मार रहे हैं !
बांस की खपच्चियों से खोखला पुतला बना कर उसमें भूसा और बारूद भर कर
मौत के घाट उतार रहे हैं ....
हर साल !

वही लोग....दस मुंह, दस बात ....लेकिन,.....
वो अकेला ही कहलाया दशानन !
एक था रावण.....!

Friday, September 18, 2009

दर्शन

काफी दिनों से बीवी पीछे पड़ी थी, कि ज़रा अपना 'स्टेटस' देखो....एक कार तो हमारे पास
होनी ही चाहिए ।
आख़िर वो कार ले ही आया, और पॉश कोलोनी में अपने घर के आगे खड़ी कर दी ।
'सब से पहले गणेश मन्दिर चलेंगे' बीवी ने चहकते हुए कहा ।
'पुराने घर से माँ- बाऊजी को भी साथ ले लें, उन्हें कार लाने की ख़बर भी हो जायेगी' कह कर उसने बीवी का मूड भांपने की कोशिश की ।
बीवी ने नाक सिकोडी, और कहा ,'मर्जी आपकी, हमें क्या ।'

मन्दिर में दर्शन करने के बाद जब 'जुग-जुग जियो बेटा' कह कर माँ ने उसके सर पर हाथ फेरा,
उस समय वो और उसकी बीवी दोनों ये अंदाजा तक नहीं लगा पाये, कि माँ ने एक धुंधली आकृति भर देखी,
गणेशजी के दर्शन नहीं कर पाईं ........... उनकी आँख का मोतियाबिंद पिछले कुछ सालों में पक चुका था !

Wednesday, September 16, 2009

माफ़ी चाहूंगा ........,लेकिन......


"अंधा क्या चाहे- दो आँख"

यही पढ़ा है अब तक
सभी के मुंह से सुना भी यही है
मैं भी यही मानता रहा हूँ.......जो बचपन से सीखा , वैसा ही माना

अब ध्यान गया है......
"अंधा क्या चाहे- दो आँख", यह बात किसी नेत्रहीन ने तो निश्चय ही नहीं कही है
जिस ने भी कही, वह नेत्रहीन नहीं था...हाँ, दृष्टिहीन अवश्य रहा होगा

मैंने ऐसे नेत्रहीन व्यक्तियों को देखा है, जिनके पास ऎसी दृष्टि है,
जिससे अनेकों को मार्गदर्शन मिला है
दृष्टिहीन तो नेत्र होते हुए भी देख पाने में असमर्थ होता है

मुझे लगता है, इस बात को यूँ कहा जाना चाहिए था-"अंधा क्या चाहे- एक आँख" ।
नेत्रहीन को एक आँख भी मिल जाए तो उसे दिखने तो लगेगा ही
जिसके पास कुछ भी नहीं होता, वो पहले "कुछ" पाने की सोचता है...."सब कुछ" की नही !

माफी चाहूँगा......., लेकिन...........कुछ दिखा, और......यह लिखा !

Monday, September 14, 2009

जो बोले सो......

"जो बोले सो निहाल !"
"........................."

"जो बोले सो निहाल..."
"........................"

"आंसर दो बेटे,.....जो बोले सो निहाल....!"
"इंगलिश !!!!"

.....बेटे ने उत्तर दे दिया !

Sunday, September 13, 2009

नाच अंगुली, नाच......

नाच अंगुली, नाच !
विचारों की ताल पर, अभिव्यक्ति की लय पर
थिरक-थिरक ....नाच !!

पहले कागज़ पर चलती थी कलम ।
दो अंगुलियाँ और एक अंगूठा मिल कर पकड़ते थे जिसे ।
शेष दो अंगुलियाँ सहारा देती थीं जिनको ।
पूरा हाथ चलता था कलम के साथ !

आज 'की-बोर्ड' पर चलती हैं अंगुलियाँ ।
सारी अलग-अलग ।
सबने बाँट रखे हैं अपने-अपने अक्षर ।
और अंगूठा बढ़ा रहा दूरी,.... दे रहा 'स्पेस' !

चाहे नाचो अलग-अलग, चाहे थिरको अलग-अलग,
लेकिन शब्दों को बंटने ना देना, वाक्य को टूटने ना देना,
एकता की शक्ति पर,
विचारों और अभिव्यक्ति पर
आने ना पाए आंच,
नाच अंगुली, नाच .............!

Friday, September 11, 2009

समझदार को...............

"समझदार को इशारा ही काफ़ी है ।"
मैं नहीं जानता यह सबसे पहले किसने कहा ।
जिसने भी कहा, सोच-समझ कर ही कहा होगा ।
मुझे आज तक यह बात समझ में नही आयी ।
अरे भई, एक बात बताओ-
"समझदार ही होता , तो इशारे की भी ज़रूरत पड़ती ?"

Thursday, September 10, 2009

तारीख

ईश्वर ने दिन बनाए ।
इंसान ने हर दिन को एक अंक दे दिया ....... दिनांक !
ईश्वर का बनाया हर दिन एक नया चेहरा लगा कर आता है......
अंकों का चेहरा ! इंसान का दिया चेहरा !!
हम हर दिन को इंसान के दिए हुए चेहरे से पहचानते हैं ।
तारीख !
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तारीख से हर इंसान जुड़ा है ।
ज़्यादातर इंसान तारीख पर याद किये जाते हैं- अरे ! आज तो उसकी वर्षगाँठ है !
कुछ तारीखें इंसान की वजह से याद रखीं जाती हैं ।
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तारीखों और इंसान का रिश्ता यूँ ही बना रहेगा,
जब तक इंसान है !
जब तक तारीख है ।

Wednesday, September 9, 2009

असली रंग

चौराहे पर लाल बत्ती हो चुकी थी और बीचों-बीच ट्रेफिक पुलिस वाला खड़ा था ।
मैंने अपना स्कूटर रोका
स्कूटर लाल बत्ती को देख कर रोका, या पुलिस वाले को,... यह बताना मुश्किल है ।
...................

इधर-उधर देखा...होर्डिंग, दुकानें, आगे खड़ी कार पर कपड़ा मार कर पैसे मांगता लड़का..... ।
दाहिने नज़र पड़ी.....डिवाईडर के बीच लगे पौधों के ऊपर वाले पत्ते हरे , ....और नीचे के पत्ते लाल !
आश्चर्य हुआ, सब एक ही तरह के पौधों के पत्तों का रंग अलग-अलग !!!!
कहीं पौधे नकली तो नहीं ?!?
..................

ध्यान से देखा, पौधे नकली नहीं थे, उनके नीचे वाले पत्तों का रंग पान और गुटखों की पीक के कारण लाल था ।
लगा, "यही तो हमारे सुसभ्य चेहरे का असली रंग है !"

Monday, September 7, 2009

श्राद्ध ? !!!

दादाजी खिचड़ी खाते थे,
क्योंकि उनके दांत नही थे...
किसको परवाह, किसको फुर्सत,
कौन बत्तीसी लगवाता.....!

उनके श्राद्ध पर छत की मुंडेर पे
काला कौवा आता है,
बड़े मज़े से खीर खाता,
दादा तक है पहुंचाता...............!

Sunday, September 6, 2009

प्रणाम गुरूजी

" स्स ..............आ................लों" ने कल मेरी ब्रॉड बैंड लाइन दुरुस्त कर दी होती, तो मैं अपने समस्त गुरुओं
को "शिक्षक दिवस" पर प्रणाम तो कर लेता !

मेरी शुरू की भाषा पर एतराज़ तो नहीं न आपको ?
ये भाषा दुनिया ने सिखाई है ।
दुनिया तो सबसे बड़ी "गुरु" है भाई !

प्रणाम गुरूजी !

पहले कुल्ला कर लूँ भई......!

कहते हैं , जब खाने में कुछ कड़वा आ जाए , तो बोलने की बजाय पहले कुल्ला कर लेना चाहिए ।
'सब से तेज़' का दावा करने वाले ब्रॉड बैंड ने पूरे दस दिनों तक मेरा बैंड बजाये रखा ।
शिकायत दर्ज करने वाले कॉल सेंटर से ले कर विभाग के उच्च अधिकारी सब
एक दूसरे के पाले में फुटबाल फेंकते रहे , किसी के पास कोई जवाब नहीं था, कि हुआ क्या है ।
प्रेस का हवाला देने के बाद ये हाल है !
सच है,"सारी दुनिया इसलिए चल पा रही है, कि कुछ गिने-चुने काबिल लोग पूरी ईमानदारी से अपना काम
कर रहे हैं ।"
कड़वा लगा ना ?
इसीलिए कह रहा था, " पहले कुल्ला कर लूँ भई...! "

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